खेती में रसायन और घर में दवा बढ़ रही फलों व सब्जियों को ताजा और ज्यादा आकर्षक दिखने और उन्हें चटख रंगों में रंगने के लिए भी खतरनाक रसायनों का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार फलों को पकाने के लिए कॉपर सल्फेट, कैल्शियम कार्बाइड, एसिटिलीन गैस, इथेफोन का प्रयोग किया जाता है। इस जहरीले रसायन के प्रयोग से उगाई गई फल व सब्जियों के प्रयोग का स्त्री-पुरुष, बच्चे-बुजुर्गों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव का अनुमान लगाया जा सकता है। जैसे-जैसे खेती में रसायनों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है, वैसे वैसे हमारी दवाओं पर निर्भरता भी बढ़ती जा रही है। जैविक खेती की तरफ लौटना ही विकल्प सवाल यह है कि आखिर इस बढ़ते मर्ज का इलाज क्या है? तो इसका एक ही जवाब है कि मानवता और प्रकृति की भलाई के लिए मनुष्य को जैविक खेती की ओर लौटना होगा। इससे न सिर्फ मानव स्वास्थ्य को बचाया जा सकेगा, बल्कि प्रकृति के पारिस्थितिकीय तंत्र को भी सुधारा जा सकेगा। जैविक फल, सब्जी, दाल, अनाज न सिर्फ स्वास्थ्य के लिए बेहतर हैं, बल्कि इनसे प्राप्त पैदावार से किसानों की आर्थिक स्थिति भी बेहतर होगी। मानवता की जरूरत है देश ही नहीं, दुनिया को भी जैविक खेती की तरफ लौटाना। हालांकि देश में अभी जैविक कृषि उत्पादों के विपणन का कोई व्यवस्थित तंत्र विकसित नहीं हो पाया है, परंतु सरकार इस क्षेत्र में कई सारी योजनाओं पर कार्य कर रही है। केंद्र सरकार का लक्ष्य 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की है। इस दिशा में जैविक खेती भी बड़ा उपकरण साबित हो सकती है। तभी हम कैंसर एक्सप्रेस जैसी महामारी का प्रतीक बन चुकी ट्रेनों की जरूरत से भी मुक्त हो सकेंगे।

जानें कैसे फल-सब्जी, पानी और अनाज हमें बना रहे कैंसर का मरीज

 बहुत कम लोगों को पता होगा कि भारत में कैंसर ट्रेन नाम से भी एक रेलगाड़ी चलती है। चौंकिए नहीं, इस रेलगाड़ी में न तो कैंसर की बीमारियों से जुड़ी कोई प्रदर्शनी लगती है और न ही इसमें कैंसर रोगियों के उपचार के लिए कोई खास इंतजाम हैं। दरअसल पंजाब के अबोहर से राजस्थान के जोधपुर के बीच चलने वाली बीकानेर एक्सप्रेस को स्थानीय लोग कैंसर एक्सप्रेस के नाम से जानते हैं। इसकी वजह यह है कि इस ट्रेन में रोजाना अबोहर से करीब अस्सी से लेकर सवा सौ कैंसर मरीज चढ़ते हैं और इलाज के लिए जोधपुर के क्षेत्रीय कैंसर रिसर्च इंस्टीट्यूट में जाते हैं। इतने सारे कैंसर रोगियों को ढोने के चलते ही इस ट्रेन का लोगों ने स्थानीय स्तर पर कैंसर ट्रेन नाम रख दिया है।खेती में रसायन और घर में दवा बढ़ रही फलों व सब्जियों को ताजा और ज्यादा आकर्षक दिखने और उन्हें चटख रंगों में रंगने के लिए भी खतरनाक रसायनों का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार फलों को पकाने के लिए कॉपर सल्फेट, कैल्शियम कार्बाइड, एसिटिलीन गैस, इथेफोन का प्रयोग किया जाता है। इस जहरीले रसायन के प्रयोग से उगाई गई फल व सब्जियों के प्रयोग का स्त्री-पुरुष, बच्चे-बुजुर्गों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव का अनुमान लगाया जा सकता है। जैसे-जैसे खेती में रसायनों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है, वैसे वैसे हमारी दवाओं पर निर्भरता भी बढ़ती जा रही है। जैविक खेती की तरफ लौटना ही विकल्प सवाल यह है कि आखिर इस बढ़ते मर्ज का इलाज क्या है? तो इसका एक ही जवाब है कि मानवता और प्रकृति की भलाई के लिए मनुष्य को जैविक खेती की ओर लौटना होगा। इससे न सिर्फ मानव स्वास्थ्य को बचाया जा सकेगा, बल्कि प्रकृति के पारिस्थितिकीय तंत्र को भी सुधारा जा सकेगा। जैविक फल, सब्जी, दाल, अनाज न सिर्फ स्वास्थ्य के लिए बेहतर हैं, बल्कि इनसे प्राप्त पैदावार से किसानों की आर्थिक स्थिति भी बेहतर होगी। मानवता की जरूरत है देश ही नहीं, दुनिया को भी जैविक खेती की तरफ लौटाना। हालांकि देश में अभी जैविक कृषि उत्पादों के विपणन का कोई व्यवस्थित तंत्र विकसित नहीं हो पाया है, परंतु सरकार इस क्षेत्र में कई सारी योजनाओं पर कार्य कर रही है। केंद्र सरकार का लक्ष्य 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की है। इस दिशा में जैविक खेती भी बड़ा उपकरण साबित हो सकती है। तभी हम कैंसर एक्सप्रेस जैसी महामारी का प्रतीक बन चुकी ट्रेनों की जरूरत से भी मुक्त हो सकेंगे।

कैंसर को हरित क्रांति का उपहार मानते हैं लोग
दरअसल पंजाब के भटिंडा और उसके आसपास की ग्रामीण आबादी की त्रासदी यह है कि लगभग सभी छोटे काश्तकार परिवार का कम से कम एक सदस्य कैंसर से ग्रस्त है। इसकी बड़ी वजह मानी जा रही है हरित क्रांति। कैंसर रोगियों की बाढ़ को रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग के बाद आई हरित क्रांति का उपहार मान सकते हैं। गेहूं, धान और कपास की बंपर पैदावार देने वाले इस इलाके में प्रति हेक्टेयर रासायनिक उर्वरक व कीटनाशकों का उपयोग राष्ट्रीय औसत से लगभग तीन गुना अधिक है। शुरू में लोगों की थाली में रोटी और चावल भरकर देश की भुखमरी को दूर करने वाले इस इलाके को अब प्रकृति के अंधाधुंध दोहन और उसमें कीटनाशकों और रासायनिक खादों के भारी इस्तेमाल के दुष्परिणाम भोगने पड़ रहे हैं।

भूजल का इस्तेमाल बना रहा कैंसर रोगी
भारत की 80 प्रतिशत गेहूं की आवश्यकता की पूर्ति करने वाला पंजाब आज स्वयं गंभीर स्थिति में पहुंच चुका है। अधिक अन्न उत्पादन के लिए अंधाधुंध कीटनाशकों व उर्वरकों के इस्तेमाल के चलते फसलों में पानी की खपत बढ़ी है, जिससे लगातार भूजल स्तर नीचे गिरता जा रहा है। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने तो पंजाब के गिरते भूजलस्तर के लिए कई इलाकों को डार्क जोन तक घोषित कर दिया है। इसका असर यह भी हुआ है कि भूगर्भ जल विषाक्त हो चुका है। चूंकि ग्रामीण आबादी घरों में लगे हैंडपंप या स्थानीय सब मर्सिबल पंपों के जरिये खींचे गए पानी का ही पेयजल के रूप में इस्तेमाल करती है, इस वजह से विषाक्त भूजल स्तर के दुष्परिणामों से सबसे ज्यादा ये इलाके ही प्रभावित हैं। जिसकी वजह से ग्रामीण आबादी को ही सबसे ज्यादा कैंसर और दूसरे रोगों का सामना करना पड़ रहा है।

पहले जब कोई व्यक्ति बीमार होता था तो कहा जाता था कि हवा-पानी बदलने से उसका स्वास्थ्य बेहतर हो जाएगा। तब यह भी समझा जाता था कि शहरों के वायु और जल प्रदूषण की वजह से स्वास्थ्य लाभ के लिए गांवों और सुदूर ग्रामीण या पहाड़ी इलाकों में कुछ दिन बिता लेने के बाद वहां मिलने वाली शुद्ध हवा व पानी से स्वास्थ्य सुधर जाएगा, लेकिन कीटनाशकों और रासायनिक खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल से हालात बिल्कुल बदल चुके हैं।

फल-सब्जियों में हो रहा रसायन का इस्तेमाल
मानव ही नहीं, घरेलू जानवरों के स्वास्थ्य को भी न सिर्फ रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से हानि पहुंच रही है, बल्कि इसके अलावा हार्मोन्स और परिरक्षकों के इस्तेमाल से भी नुकसान हो रहा है। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि इन दिनों फलों-सब्जियों की तेज बढ़ोतरी के साथ ही फलों को पकाने और खाद्य पदार्थों के परिरक्षक के लिए भी हार्मोन्स का इस्तेमाल बढ़ा है। ये सभी रसायन मानव ही नहीं, जानवरों और प्रकृति के लिए भी खतरनाक माने जाते हैं। अब यह छुपी हुई बात नहीं रही है कि बैंगन, लौकी, तरबूज को जल्द से जल्द उसके सामान्य आकार से बड़ा करने के लिए ऑक्सीटोसिन नामक रसायन का प्रयोग आम हो चुका है। हालांकि इसका जानवरों पर प्रयोग प्रतिबंधित है। कुछ वर्षों पहले इस रसायन का प्रयोग गाय व भैंस पर अधिक दूध उत्पादन के लिए किया जाता था। इस रसायन का प्रयोग मां के दूध के स्नाव को उत्तेजित करने, प्रसव के बाद रक्त स्नाव को नियंत्रित करने के लिए भी चिकित्सा की दुनिया में किया जाता है।

खेती में रसायन और घर में दवा बढ़ रही
फलों व सब्जियों को ताजा और ज्यादा आकर्षक दिखने और उन्हें चटख रंगों में रंगने के लिए भी खतरनाक रसायनों का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार फलों को पकाने के लिए कॉपर सल्फेट, कैल्शियम कार्बाइड, एसिटिलीन गैस, इथेफोन का प्रयोग किया जाता है। इस जहरीले रसायन के प्रयोग से उगाई गई फल व सब्जियों के प्रयोग का स्त्री-पुरुष, बच्चे-बुजुर्गों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव का अनुमान लगाया जा सकता है। जैसे-जैसे खेती में रसायनों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है, वैसे वैसे हमारी दवाओं पर निर्भरता भी बढ़ती जा रही है।

जैविक खेती की तरफ लौटना ही विकल्प
सवाल यह है कि आखिर इस बढ़ते मर्ज का इलाज क्या है? तो इसका एक ही जवाब है कि मानवता और प्रकृति की भलाई के लिए मनुष्य को जैविक खेती की ओर लौटना होगा। इससे न सिर्फ मानव स्वास्थ्य को बचाया जा सकेगा, बल्कि प्रकृति के पारिस्थितिकीय तंत्र को भी सुधारा जा सकेगा। जैविक फल, सब्जी, दाल, अनाज न सिर्फ स्वास्थ्य के लिए बेहतर हैं, बल्कि इनसे प्राप्त पैदावार से किसानों की आर्थिक स्थिति भी बेहतर होगी। मानवता की जरूरत है देश ही नहीं, दुनिया को भी जैविक खेती की तरफ लौटाना। हालांकि देश में अभी जैविक कृषि उत्पादों के विपणन का कोई व्यवस्थित तंत्र विकसित नहीं हो पाया है, परंतु सरकार इस क्षेत्र में कई सारी योजनाओं पर कार्य कर रही है। केंद्र सरकार का लक्ष्य 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की है। इस दिशा में जैविक खेती भी बड़ा उपकरण साबित हो सकती है। तभी हम कैंसर एक्सप्रेस जैसी महामारी का प्रतीक बन चुकी ट्रेनों की जरूरत से भी मुक्त हो सकेंगे।

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