10 अप्रैल 17….कल आश्रम में प्रशिक्षु व इकाई समन्वयकों की कक्षा चल रही थी।भोजन के बाद, कक्ष में ,मैं और श्रीगुरुजी कोई बात कर रहे थे। उसी दौरान मैंने पूछा, ” मनुष्य जब अकेला होता है तब सत्य उसके साथ रहता है या जब वह किसी के साथ होता है, तो सच्चा होता है?”
ये बिस्तर पर अधलेटे, T. V. पर news देख रहे थे। कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर, मैंने सोचा, या तो प्रश्न ही निरर्थक है या समय उचित नहीं…मैं उठने ही वाली थी कि ये बोले,” अरे!इतना गूढ़ प्रश्न करके आप आराम करने चल दीं… उत्तर तो सुनती जाइये….. जब भी हम दूसरों से बात करते हैं, तो पूरी तरह सच्चे नहीं होते ,मन के किसी कोने में असत्य छिपा रहता है… जो हम हैं, कहीं वह पूरी तरह उजागर न हो जाये…या हमारे शब्दों से हमारे मन का हाल स्पष्ट न हो जाये..,तो दूसरों के सामने हम पूरे सच्चे नही होते…लेकिन जब अकेले में विचारते हैं ,तो सत्य-असत्य का सही निर्णय कर पाते हैं। अकेले में हम सोच पाते हैं कि हमने कहाँ ग़लत किया….”।
” पर मैंने देखा है कि मनुष्य का अहम ,उस पर इतना हावी हो जाता है कि वह अकेले में भी अपनी गलती नहीं देख पाता….” मैंने अपनी बात रखी। श्रीगुरुजी बोले,” ऐसा नहीं है… भीतर की आवाज़ बताती है, पर हम उसे अनसुना कर देते हैं…यह भीतर की आवाज़ शुरू-शुरू में तो बहुत तेज़ होती है कि मन घड़ी के pendulum की तरह, सही-गलत-सही-गलत, झूलता है ….पर जब हम भीतर की आवाज़ का गला घोंटने लगते हैं तो धीरे – धीरे यह आवाज़ मंदी पड़ जाती है, पर आवाज़ आती तब भी है….”
“….और फिर तब तक भीतर की आवाज़ को अनसुना करने की आदत भी पड़ चुकी होती है और हम ढीठ हो चुके होते हैं “।मैंने बात पूरी की ।….चलने लगी …फिर मुझे इनका comment याद आया और मैं मुस्कुरा कर बोली , ” by the way, मैं गूढ़ प्रश्न करके आराम नहीं , काम करने जा रही थी “।