22 मई 17…हां तो, 2-3 दिन पहले मैंने बताया था न कि श्रीगुरुजी से एक लंबी चर्चा हुई, आज उसी की एक और कड़ी बताती हूँ। श्रीगुरुजी अक्सर कहते हैं कि समाज से अच्छा कोई teacher नहीं… उस दिन भी library में हमारे साथ बैठे उसी बच्चे से ये बोले, ” मैंने अनेक बार बड़े
– बड़े काम कई लोगों के साथ शुरू तो किये पर कुछ धनाभाव के कारण पूरे नहीं हो पाए और कुछ में, जब मुझे बड़े- बड़े लोगों की स्वार्थपरस्ती दिखी, तो मैं ही छिटक गया…इन सब में मुझे कई बार दुःख भी मिलता है…पर मुझे तो काम करना है, सो फिर से शुरू करता हूँ।”
मैंने तुरंत पत्नी वाली भूमिका में कहा,” मैं जब आपसे कहती हूँ कि अमुक व्यक्ति मुझे रुचता नहीं तो आप मेरी बात भी तो नहीं मानते…”, फिर माँ वाली भूमिका में आकर, उसी बच्चे से बोली, ” अगर मेरी बात मान लें, तो दुख ही न हो…”।
इन्होनें उस बच्चे की ओर देखते हुए कहा,” लगता है भूल गयी हैं कि ये खुद भावनाओ में पसीज कर, अक्सर मुझे फंसा देती हैं और फिर मजबूर भी करती हैं कि मैं इनकी बात मानूँ…”।फिर संजीदा होते हुए बोले,” …ये बात ठीक है कि आपकी बात मान लूँ तो दुःख नहीं होगा पर नुकसान और बड़ा होगा कि अनुभव भी नहीं होगा ….अनुभव नहीं कमाया तो इन बच्चों को क्या सिखा पाऊंगा… फिर इन्हें खुद ठोकर खाकर सीखना पड़ेगा, इन सबमें कितना समय निकल जायेगा… इससे तो अच्छा ठोकर मैं खाऊं और मेरे अनुभव से फायदा ये लें और जल्दी- जल्दी समाज के लिए तैयार हों…”।
बात बहुत पते की कह दी,* सावधान रहने से दुःख तो नहीं होगा पर अनुभव से भी वंचित रहना होगा*
(हाँ …ये अलग बात है कि इस पते की बात पर पहुंचने में उस बच्चे का हम दोनों ने एक बार फिर shuttle- cock बनाया…कभी वह मेरी ओर देख कर हाँ में हां मिलाता…कभी इनकी ओर देखकर सर हिलाता…)
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