23 अप्रैल 17……मैंने कहा,”ठीक बात है ….धैर्य धरना बिना परिस्थितियों से गुजरे नही आएगा पर आपने कहा आश्रम के इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ज्ञान बढ़ाना होगा, स्वाध्याय करना होगा…”श्रीगुरुजी एकदम से बोल पड़े, “हम सांस्कृतिक-धार्मिक पुनर्जागरण कैसे करेंगे , अगर हमें यही नहीं पता होगा कि धर्म क्या है,संस्कृति क्या है?”
“…पर भारत में इतना ज्ञान है औऱ वह भी बिखरा हुआ, लोग कैसे समझ पायेंगे?” मैंने चिंता जताई।
“अरे मैं रोज़ T. V पर भारत का ज्ञान ही तो बता रहा हूँ, इतने प्रवचन, सत्संग कर रहा हूँ, अगर कोई उन कार्यक्रमों को गौर से सुनता रहे, note करता रहे, गुनता रहे, फिर मेरे बताये हुए references का स्वाध्याय करे तो उसके हिस्से का काम तो बहुत हद तक वैसे ही पूरा हो जाएगा, ” श्रीगुरुजी बोले।
“… पर इसमें एक समस्या है ,जहां लोग थोड़ा सा ज्ञान पा जाते हैं, या थोड़ा सा कहीं कुछ पढ़ लेते हैं तो अपने collar खड़े करने के लिए, आपसे सुनी हुई उस बात को अपने नाम से कहने लगते हैं, मैंने यह भी देखा है कि लोगों में यह बताने की होड़ भी लगी रहती है कि आजकल मैं अमुक पुराण पढ़ रहा हूँ…. फिर उनमें ज्ञानी होने का अहंकार जाग जाता है…. और फिर मुझे चिंता हो जाती है कि ‘मैं ज्ञानी हूँ’, का भाव आया नहीं कि यह सिपाही बेकार हुआ….फिर हमारी लड़ाई का क्या होगा।”मैं बोली।
“फिकर not, ” ये बोले “….पहले थोड़ा ज्ञान आएगा, थोड़ा नाम की इच्छा जगेगी, फिर थोड़ा अहंकार आएगा, फिर थोड़ा मैं समझाऊंगा, आप ज्यादा समझाएंगी…,वो भी पकड़-पकड़ कर…मैं जानता हूँ…. नहीं संभला तो ठोकर खायेगा, फिर आना होगा तो अपने रस्ते आएगा नहीं तो हम आपके हैं कौन.. पर पैरों में बेकार के पत्थर बांधकर नहीं तैरूँगा, यह स्पष्ट है।”
…..फिर 2015 में पहली बार ऐसा मौका आया, जब इस बात का उत्तर मिला जो मैंने 22 अप्रैल की पोस्ट में लिखा था, “कि हम उस दिशा में कर तो कुछ नहीं रहे….”(वह कल)