जिंदगी का खेल भी अजब-गजब है। कुदरत के दिए जख्म कभी नहीं भरते पर दोस्ती उस पर मरहम का काम कर जाती है। रुद्रपुर के कलक्ट्रेट परिसर में काम करने वाले दो कर्मचारी, जिनकी जिंदगी से वक्त ने आंखों की रोशनी छीन ली, फिर भी वर्षों की दोस्ती एक-दूसरे का सहारा बन गई। दोनों अपनी दोस्ती की नजर से जिंदगी का सफर तय कर रहे हैं।
बात कर रहे हैं आपदा प्रबंधन विभाग के विनोद बेलवाल और राजस्व विभाग में कार्यरत रामबरन वर्मा की। रोजाना दोनों दफ्तर के लिए हाथों पर हाथ डालकर आते-जाते हैं। दृष्टिहीनता को मात देते हुए उन्होंने पूरा कलक्ट्रेट मन की आंखों में नाप रखा है। इन्हें कहीं पहुंचने के लिए किसी इशारे की जरूरत नहीं।
आपदा प्रबंधन विभाग के विनोद की दास्तां किसी कहानी से कम नहीं। संघर्ष भरे अतीत वाले विनोद मूल रूप से बांदा, उप्र के रहने वाले हैं। जब दो साल के थे, खसरे से उनकी आंखों पर फर्क पड़ने लगा, लेकिन परिवार में किसी को आभास नहीं था कि यह बीमारी एक दिन जिंदगीभर की सजा बन जाएगी। बीमारी से जागरूकता के अभाव में इनकी आंखों की रोशनी चली गई।
इन्होंने राष्ट्रीय दृष्टि बाधितार्थ संस्थान (एनआइवीएच), देहरादून से शिक्षा ग्रहण की। इसके बाद राष्ट्रीय दृष्टि बाधितार्थ संघ, जो सरकारी पदों को भरने के लिए संघर्ष करती है, से जुड़े। जहां इनकी मुलाकात समान हालात वाले अल्मोड़ा के रामबरन चंद्र वर्मा से हुई। मोतियाबिंद के चार ऑपरेशन के बाद इनकी भी आंखों की रोशनी चली गई। समान फ्रीक्वेंसी के चलते इनकी दोस्ती गहरी हो गई, जो दोनों के लिए ताकत बन गई। बाद में विनोद की कलक्ट्रेट में नौकरी लग गई और वह यहीं बस गए। कुछ सालों बाद रामबरन भी कलक्ट्रेट में नजारत में काम करने लगे।
खास बात यह है कि रामबरन चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी हैं और विनोद बाबू। बावजूद इसके आज भी दोनों साथ-साथ एक-दूसरे का हाथ थामकर आते हैं तो हर कोई इनकी दोस्ती का कायल हो जाता है। कलक्ट्रेट से रोडवेज तक दोनों का साथ रहता है और वहां से दोनों अपनी बस पकड़कर नियमित अप डाउन करते हैं। दोनो बताते हैं कि एक-दूसरे की बातों से ही पैदल सफर कट जाता है और रोडवेज कब आया पता ही नहीं लगता।
बेटियों की बेहतरी है सपना
विनोद बेलवाल की दो और रामबरन की एक बेटी है। दोनों बेटियों के उज्ज्वल भविष्य के सपने के साथ आगे बढ़ रहे हैं। हालांकि परिजन भी इनकी हर संभव मदद करते हैं।