लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा के खिलाफ ‘साझा विरासत’ के नाम पर विपक्षी दलों की एकजुटता अथवा बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की महागठबंधन बनाने की कवायद पर बसपा सुप्रीमो मायावती की चुप्पी भारी पड़ सकती है। बृहस्पतिवार को दिल्ली में विपक्षी नेताओं की जुटान में बसपा के किसी व्यक्ति का न होना और उधर लालू द्वारा पटना में 27 अगस्त को महागठबंधन को लेकर की जा रही रैली में भाग लेने पर मायावती की चुप्पी से राजनीतिक गलियारों में विपक्षी एकता के भविष्य को लेकर तरह-तरह के सवाल खड़े होने लगे हैं।
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सपा मुखिया अखिलेश यादव हालांकि इस रैली में शामिल होने की बात लगातार कह रहे हैं। पर, पहले से आंतरिक संघर्ष से जूझ रही सपा में जिस तरह इस्तीफे शुरू हुए हैं और दूसरी तरफ पिता मुलायम सिंह यादव और चाचा शिवपाल सिंह यादव से अखिलेश यादव के रिश्तों का तनाव खत्म या कम होने के आसार दूर-दूर तक नहीं दिखाई देते, उससे भी महागठबंधन के भविष्य की राह यूपी में बहुत आसान नहीं दिखाई देती।
इसकी वजहें साफ हैं। लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल का यूपी में कोई प्रभावी आधार नहीं है। फिर जिस तबके अर्थात पिछड़ों में यादव बिरादरी का प्रतिनिधित्व लालू करते हैं, वही सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव और उनके पिता मुलायम सिंह और चाचा शिवपाल की ताकत है। ऐसे में लालू का साथ फिलहाल अखिलेश को यूपी में कोई अलग ताकत उपलब्ध कराता नहीं दिखता।
कारण, लालू के साथ होने से भी मुख्य फोकस उसी तबके पर होगा जो इस समय भी अखिलेश को ताकत उपलब्ध करा रहा है। ऐसे में जब तक लालू और अखिलेश को प्रदेश में किसी ऐसे शख्स या पार्टी का साथ नहीं मिलता जो इस तबके से इतर लोगों को पार्टी के साथ जोड़ सके, तब तक प्रदेश के राजनीतिक समीकरणों में परिवर्तन की कोई उम्मीद नहीं दिखती।
कांग्रेस का साथ, पर बदलाव मुश्किल
हालांकि कांग्रेस के पास चेहरों की कमी नहीं है लेकिन उनमें कोई भी व्यक्तिगत स्तर पर किसी तबके को उस तादाद में जोड़ने की स्थिति में नहीं दिखता जो कांग्रेस की स्थिति में बड़ा परिवर्तन कर दे।
यह भी वजह
सपा की अंतर्कलह भी इस महागठबंधन के पक्ष में पिछड़ों खास तौर से यादवों की शत-प्रतिशत लामबंदी की राह में बड़ा रोड़ा है। नीतीश के लालू से अलग होने के कारण भी उत्तर प्रदेश में इस महागठबंधन या विपक्षी एकता की राह की चुनौती बढ़ी है। हालांकि प्रदेश में जनता दल (यू) का भी बहुत मजबूत आधार नहीं है, पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पिछड़ों में जिस बिरादरी कुर्मी से संबंधित हैं, वह यूपी में बड़ी संख्या में है।
विधानसभा चुनाव के दौरान पूर्वांचल के कई जिलों में नीतीश की सभाओं में जुटी भीड़ यह बता चुकी है कि भले ही जद (यू) को एक भी सीट न मिली हो लेकिन भाजपा के साथ आने के बाद इस बिरादरी का अब पहले से ज्यादा झुकाव भाजपा की तरफ होगा। स्वाभाविक रूप से लालू व अखिलेश के साथ पिछड़ों की भाजपा के खिलाफ गोलबंदी में यह समीकरण भी बड़ी बाधा बनेगा।
विधानसभा चुनाव के बाद से बसपा में भी लगातार बिखराव हो रहा है। नसीमुद्दीन सिद्दीकी और इंद्रजीत सरोज जैसे बड़े चेहरे बसपा से अलग हो चुके हैं। ठाकुर जयवीर के रूप में एक एमएलसी भी मायावती के खिलाफ बगावत कर चुका है।
बावजूद इसके विधानसभा चुनाव में बसपा को सपा की तुलना में मिला अधिक मत प्रतिशत और दलितों में खास तौर से जाटवों में मायावती की खुद की पहुंच व पकड़ को देखते हुए यूपी में भाजपा विरोधी महागठबंधन में बसपा का साथ होना बहुत जरूरी है।
पर, जिस तरह अभी तक मायावती ने चुप्पी साध रखी है। साथ ही सियासी गलियारों में जिस तरह की चर्चाएं हैं, उसे देखते हुए पटना में लालू की रैली में मायावती अगर न शामिल हुईं तो कम से कम यूपी में इस महागठबंधन का वजूद में आना काफी मुश्किल है। कारण, बसपा के अलग रहने से दलितों का एक बड़ा वर्ग इस महागठबंधन से अलग ही रहेगा। उस स्थिति में वोटों का बंटवारा रुकने वाला नहीं।
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