वे नहीं चाहते थे कि मुख्तार अंसारी जैसे बाहुबली का नाम सपा के साथ जोड़ा जाए। इससे अखिलेश की क्लीन छवि बनी, पार्टी के बाहर भी उनके रुख को सराहा गया। हालांकि सपा मुखिया इससे सहमत नहीं थे। इसी वजह से विवाद की स्थिति पैदा हुई।
केंद्रीय संसदीय बोर्ड ने विलय को खारिज किया, लेकिन सपा मुखिया ने वीटो पॉवर का इस्तेमाल करते हुए इसे फिर मंजूरी दे दी। इस पूरे प्रकरण में अखिलेश यह संदेश देने में सफल रहे हैं कि कौमी एकता दल भले ही सपा का हिस्सा बन गया हो लेकिन वे इसके पक्ष में नहीं थे।
यह भी संकेत दे दिया कि अपनी बात कहने के लिए वे विरोध के किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। इसमें चाचा शिवपाल के विभाग छीनने से लेकर उन्हें मंत्री पद से बर्खास्त करने तक के फैसले शामिल हैं।
चुनाव में अपने दम पर उतरा जाए या गठबंधन किया जाए, इसे लेकर सपा बंटी हुई थी। वर्ष 2012 में सपा ने अकेले चुनाव लड़कर सरकार बनाई थी, लेकिन तब भाजपा मुख्य लड़ाई से बाहर थी। मुकाबला सपा और बसपा के बीच था। अब स्थिति बदली हुई है।
लोकसभा चुनाव में 73 सीट जीतने वाली भाजपा पूरी ताकत झोंके हुए है। वर्ष 2012 के लोकसभा चुनाव में सपा और बसपा को मिलाकर लगभग उतने वोट मिले थे, जितने अकेले भाजपा को मिले थे।
भाजपा को टक्कर देने के लिए कुछ नेता कांग्रेस, रालोद व अन्य छोटे दलों से दोस्ती के पैरोकार थे। लोकसभा के नतीजों के बाद मुलायम भी यह भरोसा नहीं कर पा रहे थे कि अखिलेश के विकास के एजेंडे पर चलकर पार्टी पुराना प्रदर्शन दोहरा पाएगी। इसलिए वे भी तीसरे धड़े के पक्षधर थे।
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माना जा रहा है कि मुलायम की गठबंधन की कोशिशों को देखते हुए वे उनसे अलग लाइन पर नहीं बोलना चाहते थे। गठबंधन से इन्कार करके मुलायम ने खुद अखिलेश की राय को तरजीह दी है। इसके पीछे अखिलेश की छवि और लोकप्रियता वजह रही है।
रजत जयंती समारोह में आए दूसरे दलों के नेताओं में देवगौड़ा से लालू प्रसाद और नीतीश कुमार से अजित सिंह तक ने अखिलेश की तारीफ की थी।
दो-तीन नेताओं ने लोकप्रिय मुख्यमंत्री और भविष्य का नेता भी बताया। एक वजह यह भी है कि 2012 में अपने बूते पर सरकार बनाने वाली सपा सूबे की सियासत में अपना वजूद कम नहीं करना चाहती है।
दल का गठन होने तक सपा का चुनाव चिह्न और झंडा इस्तेमाल करने पर सहमति बनी थी। आखिरी मौके पर सपा ने इस पूरी कसरत की हवा निकाल दी थी। रामगोपाल यादव ने कहा कि विलय सपा के डेथ वारंट पर हस्ताक्षर होगा।
बाद में बिहार में नीतीश कुमार, लालू यादव, कांग्रेस और सपा का महागठबंधन बना, लेकिन चुनाव से ठीक पहले सपा इससे अलग हो गई थी।
पिछलों दिनों शुरू हुई गठबंधन की सुगबुगाहट के पैरोकार भी शिवपाल ही थे। सपा के रजत जयंती समारोह में डॉ. लोहिया व चौधरी चरण सिंह अनुयायियों को बुलाने में उन्हीं की भूमिका थी।