एक खिलाड़ी घिस जाता है। पसीना बहाता है। जिंदगी-जज्बा-जुनून सब दाव पर लगाता है, तब जाकर पदक आता है। फिर पदक का रंग यदि तांबे का रह जाए तो उसे सोने में बदलने को, देश का मान बढ़ाने को जूझता है। पूरे देश की निगाहें उस पर टिकी हैं। खिलाड़ी ने पूरा समर्पण दिया। हाल ही में हुए एशियन खेल में पदक भी लाए। इस बार 15 स्वर्ण भी जीते लेकिन तालिका में फिर भी आठवें नंबर पर ही रहे। इसमें दिल्ली-एनसीआर के खिलाड़ी भी थे उन्होंने भी बेहतर खेला लेकिन दिल्ली सरकार ने, खेल विभाग ने क्या किया? यहां खेलों की सुविधाओं से खिलाड़ी मुतमइन नहीं है। आज भी खुद को तराशने के लिए प्रशिक्षण के लिए बाहर ही जाते हैं। नाम दिल्ली का ही करते हैं। जहां स्कूलों के स्तर पर ही खिलाड़ी तैयार होने चाहिए, वहां स्कूलों में महज 20 हजार ही बजट मिलता है। उसमें भी खेल के बजट में कितना खेल हो जाता है, यह स्कूल की सुविधाएं बयां कर देती हैं। जहां देश की राजधानी के नाते खेल में देश का मान बढ़ाने के लिए राज्य सरकार और खेल विभाग की सबसे अधिक तमहीद (भूमिका) होनी चाहिए वहां हम पदक जीतने वाले खिलाड़ियों का मान-सम्मान करने, उनका हौसला बढ़ाने तक की जहमत नहीं उठा रहे। बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि आखिर सरकार खेलों के प्रति इतनी उदासीन क्यों हैं।
पुरस्कार न रोजगार, ये है दिल्ली सरकार
दिल्ली में खेल के प्रति केजरीवाल सरकार कितनी सक्रिय है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि एशियन खेल में पदक लाने वाली पहलवान दिव्या मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को फोन करती हैं और वो रिसीव नहीं करते। दिव्या ने नाराजगी जताते हुए उन्हें हरियाणा सरकार से सीख लेने की बात कही है। एक तरफ खिलाड़ी लंबे संघर्ष और जद्दोजहद के बाद पदक जीतकर लाते हैं तब भी इस तरह अनदेखी की जाती है तो उससे पहले सुविधाओं के प्रति इनकी कितनी सक्रियता होगी और खिलाड़ियों को तराशने के लिए सरकार ने कितनी पहल की होंगी।