मोदी ने एक साथ कराया लोकसभा-विधानसभा चुनाव तो हो जाएगी सबसे बड़ी भूल

मोदी ने एक साथ कराया लोकसभा-विधानसभा चुनाव तो हो जाएगी सबसे बड़ी भूल

वर्ष 2013 से भारतीय जनता पार्टी नरेंद्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ती और जीतती आ रही है. चाहे वो आम चुनाव रहे हों, या फिर राज्यों के चुनाव, चेहरा बस एक हैं- मोदी. और यह क्रम आगे भी जारी है. राज्यों में भी मुख्यमंत्री पद के दावेदारों के सहारे कोई चुनाव नहीं लड़ा गया. वो भले ही प्रचार में रहे, लेकिन नाम मोदी का ही रहा. मोदी ही अपनी पार्टी और प्रचारतंत्र के बाहुबली हैं. बाकी सब साइड एक्टर्स हैं.मोदी ने एक साथ कराया लोकसभा-विधानसभा चुनाव तो हो जाएगी सबसे बड़ी भूलहार्दिक पटेल ने कांग्रेस को दिया बड़ी चेतावनी, कहा- 3 नवंबर तक बताओ कैसे दोगे आरक्षण

आम चुनाव के लिए जब प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर सितंबर 2013 में नरेंद्र मोदी के नाम को तय किया गया, तब से लेकर मार्च 2014 तक मोदी ने देशभर में 475 बड़ी-छोटी रैलियां कीं. इसके अलावा वो थ्री-डी संबोधनों और चाय पर चर्चाओं में भी नजर आए. इनकी तादाद भी 5350 है.

हालांकि मोदी का प्रभाव तभी बनता और जमता है जब वो सशरीर सभाओं में मौजूद रहते हैं. जनता से सीधे संवाद का विकल्प चाय पर चर्चा नहीं बन सकती और न ही थ्री-डी संबोधन. शायद इसीलिए 2014 की यह पद्धति मोदी ने आगे के चुनावों में नहीं आजमायी.

इसके बाद मोदी नौ राज्यों में विधानसभा चुनावों के लिए अवतरित होते रहे. 125 से ज्यादा बड़ी रैलियां उन्होंने कीं. इसमें सर्वाधिक रैलियां कीं बिहार में, सबसे कम जम्मू-कश्मीर और उत्तराखंड में. मोदी की ये कोशिशें रंग लाईं और कुछेक राज्यों को छोड़ दें तो आज भाजपा लगभग पूरे भारत में सत्तासीन नजर आती है.

एक चेहरे वाली पार्टी का संकट

आने वाले दिनों में चुनाव भले ही गुजरात और हिमाचल प्रदेश में है, पर इसकी सरगर्मी पूरे देश में महसूस की जा रही है. सूत्रों की मानें तो मोदी अपने गृहराज्य गुजरात में वर्तमान राजनीतिक माहौल को देखते हुए विधानसभा चुनाव के मतदान से पहले 50 रैलियां कर सकते हैं. इस वर्ष जनवरी से अबतक वो 10 बार गुजरात जा चुके हैं. वो हिमाचल भी जाएंगे और इसकी शुरुआत 29 अक्टूबर को आमसभा से हो जाएगी. 

यानी हर मोर्चे और हर चुनाव का चेहरा एक ही हैं- मोदी.

प्रधानमंत्री बनने के बाद से मोदी लगातार कहते रहे हैं कि देश का काफी समय और पैसा राज्यों और केंद्र के अलग अलग समय पर होने वाले चुनाव में खर्च हो जाता है. उन्होंने सुझाव दिया है कि राज्यों का चुनाव और केंद्र में सरकार चुनने के लिए मतदान एकसाथ होने चाहिए. 

यदि प्रधानमंत्री मोदी की इस सलाह को मान भी लिया जाए तो इससे सबसे ज्यादा पशोपेश में और नुकसान में वो खुद रहने वाले हैं. इसकी एकमात्र वजह है एक चेहरे वाली राजनीति और प्रचार व्यवस्था.

मोदी अपनी पार्टी का चेहरा हैं. राज्यों के मुद्दों से लेकर केंद्र की नीतियों तक हर चुनाव में मोदी ही विपक्षियों को टक्कर देते हैं. अगर राज्यों और केंद्र के चुनाव एकसाथ करवाने की कोशिश होती है तो मोदी को  हजारों की तादाद में रैलियां और जनसभाएं देश के सभी हिस्सों में जाकर करनी पड़ेगी.

याद कीजिए कि कैसे वो बिहार के एक-एक जिले में पहुंच रहे थे. उत्तर प्रदेश में वो रोडशो करते नजर आए. बनारस में डेरा डालकर बैठे. महाराष्ट्र में अलग-अलग हिस्से के लोगों को उनके मुद्दों पर समझाते और सहमत करवाते नजर आए.

ऐसा अगर सभी राज्यों और केंद्र सरकार के चुनाव के लिए करना पड़े तो अकेले मोदी से यह संभव नहीं हो पाएगा. फिर प्रधानमंत्री रहते हुए तो यह उनके लिए नामुमकिन जैसा होगा. सरकार का कामकाज और इतने सारे राज्यों का दौरा करने में मोदी अपनी ही पार्टी और प्रचार को वो समय और महत्व नहीं दे पाएंगे जो वो अभी दे पा रहे हैं. 

ऐसे में मोदी का अपना ही विचार उनके लिए सबसे महंगा साबित हो सकता है.

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