कर्नाटक: दिखी विपक्षी एकता का दिल्ली में निकल रहा दम

कर्नाटक में जनता दल (एस) नेता एचडी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह के बहाने भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकता की कवायद का दिल्ली की सियासत पर शायद ही असर पड़े। वहां, विपक्षी एकता के लिए सजे मंच का मिजाज भी कुछ इसी ओर इशारा कर रहा था। दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी (AAP) के मुखिया अरविंद केजरीवाल को मंच पर कोई तवज्जो नहीं मिली। वह विभिन्न दलों के नेताओं के बीच पहुंचे तो थे, लेकिन अलग-थलग ही नजर आए।

ऐसे में देश के विभिन्न राज्यों में भले ही विपक्ष एकजुट होकर चुनाव लड़े, लेकिन राजधानी दिल्ली में आगामी चुनावों में गैर-भाजपा दलों के गठजोड़ की संभावना कम ही नजर आती है। यहां फिर से भाजपा, कांग्रेस और AAP के बीच ही सियासी जंग होने के आसार हैं।

कर्नाटक में भाजपा की राह मुश्किल करने के लिए अन्य विपक्षी दलों के साथ ही AAP के नेता भी कांग्रेस और जनता दल (एस) के बीच गठबंधन की हिमायत कर रहे हैं। नतीजे आने पर आप की बुरी तरह पराजय के बाद इसके कई नेता भाजपा के खिलाफ सोशल मीडिया पर अभियान भी चला रहे थे।

कुमारस्वामी का निमंत्रण मिलते ही केजरीवाल के कर्नाटक जाने के एलान से दिल्ली के सियासी गलियारे में AAP व कांग्रेस के बीच संभावित गठबंधन को लेकर कयास लगने लगे थे। हालांकि, दिल्ली के कांग्रेस नेता इसके पक्ष में नहीं हैं।

दिल्ली प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय माकन AAP को भाजपा की बी टीम बताते हुए उसके साथ गठबंधन की किसी भी संभावना को खारिज कर रहे हैं। वहीं, कर्नाटक में भाजपा विरोधी नेताओं के जमावड़े में कांग्रेस नेताओं द्वारा केजरीवाल की अनदेखी और कांग्रेस से किसी तरह का गठजोड़ होने पर आप नेता जेएस फुलका की पार्टी छोड़ने की धमकी से सियासी स्थिति बदली नजर आती है।

AAP के साथ कांग्रेस के रहे हैं कड़वे अनुभव
दिल्ली में AAP व कांग्रेस के बीच सियासी गठजोड़ नहीं होने के और भी कई कारण नजर आते हैं। वर्ष 2013 में आप का जन्म ही तत्कालीन कांग्रेस सरकार के खिलाफ आंदोलन से हुआ था। केजरीवाल ने तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व उस समय पार्टी उपाध्यक्ष रहे राहुल गांधी सहित कांग्रेस के अन्य बड़े नेताओं पर गंभीर आरोप लगाए थे। दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को भ्रष्ट बताते हुए उन्हें जेल भेजने का एलान कर चुनावी सभाओं में तालियां बटोरते हुए वह दिल्ली की सत्ता तक पहुंच गए थे। यह अलग बात है कि वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव के बाद उसी कांग्रेस के समर्थन से वह पहली बार मुख्यमंत्री बने। लेकिन कांग्रेस का यह अनुभव भी कड़वा साबित हुआ था और 49 दिन बाद केजरीवाल ने इस्तीफा दे दिया था।

 

केजरीवाल के कम होते आकर्षण में अपना लाभ देख रही है कांग्रेस
कांग्रेस अपने परंपरागत वोट बैंक मुस्लिम, दलित और पूरबिया मतदाताओं के सहारे दिल्ली में 15 वर्षों तक सत्ता में रही है, जिसे आप ने अपने पाले में कर सत्ता हासिल की थी। अपने इस वोट बैंक को हासिल करने के लिए कांग्रेस लगातार प्रयास कर रही है। पार्टी का वोट फीसद भी उसके बाद लगातार बढ़ रहा है। माकन का कहना है कि दिल्ली की जनता ने केजरीवाल को खारिज कर दिया है, ऐसे में हम उनके साथ नहीं जाएंगे। दिल्ली में कांग्रेस दिल्लीवासियों के साथ है और वह केजरीवाल के खिलाफ चुनाव लड़ेगी।

 

AAP के बड़े नेताओं, दिल्ली सरकार के मंत्रियों व स्वयं मुख्यमंत्री के रिश्तेदारों पर भ्रष्टाचार सहित कई गंभीर आरोप लगे हैं, इसे लेकर कांग्रेस मुखर भी रही है। सीसीटीवी कैमरे लगाने के ठेके को लेकर वह आप सरकार पर देश की सुरक्षा को ताक पर रखने का आरोप लगाते हुए आंदोलन कर रही है। इस स्थिति में पार्टी अकेले दम पर आगामी चुनावों में उतरने की तैयारी में है। संसदीय सचिव बनाए गए 20 विधायकों का मामला भी कांग्रेस ने ही उठाया था। उसे उम्मीद है कि लाभ का पद मामले में इन विधायकों की सदस्यता खत्म होगी और इन सीटों पर उपचुनाव होंगे। इसकी भी वह तैयारी कर रही है।

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