‘काम भले न किया हो लेकिन बलिया वालों को नाज़ है चंद्रशेखर पर’

बलिया ज़िले में क़रीब सौ किलो मीटर की दूरी पर दो गांव हैं- मऊ ज़िले की सीमा से लगा इब्राहिमपट्टी और बिहार की सीमा पर स्थित सिताब दियारा.

'काम भले न किया हो लेकिन बलिया वालों को नाज़ है चंद्रशेखर पर'

इब्राहिम पट्टी जहां पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का गांव है वहीं सिताब दियारा समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण यानी जेपी का.

मऊ के क़रीब होने और बलिया से सत्तर किमी. दूर होने के बावजूद इब्राहिमपट्टी को सिर्फ़ इसलिए मऊ ज़िले में शामिल नहीं किया गया क्योंकि चंद्रशेखर की पहचान ‘बाग़ी बलिया’ के निवासी के रूप में थी और ख़ुद उन्हें लोग ‘युवा तुर्क’ के नाम से जानते हैं.

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समाजवादी सरकार

इब्राहिमपट्टी गांव से ही संबंध रखने वाले और फ़िलहाल दिल्ली में रह रहे पत्रकार बलिराम सिंह बताते हैं कि इब्राहिमपट्टी सिर्फ़ चंद्रशेखर का जन्म स्थान रहा मगर वे चुनाव हमेशा बलिया से लड़े और वही उनकी कर्मभूमि भी रही.

उन्होंने बताया कि इब्राहीम पट्टी गांव सलेमपुर लोकसभा सीट के तहत आता है.

समाजवादी विचारों के पोषक दो बड़े नेताओं की जन्मस्थली होने के बावजूद न तो इन गांवों का और न ही इस इलाक़े का समुचित विकास हो पाया है.

विकास की स्थिति यहां भी वही है जैसी कि पूरे पूर्वांचल में.

ऐसा तब है जबकि राज्य में समाजवादी पार्टी की चार बार सरकार रह चुकी है और जेपी तो इस पार्टी के प्रमुख विचारकों में गिने जाते हैं.

बलिया जिला

बलिया के लोगों को इस बात पर नाज़ है कि देश के पूर्व प्रधानमंत्री उनके इलाक़े से आते थे.

लेकिन लोगों को इस बात का मलाल भी है कि इतने बड़े राष्ट्रीय नेता होने के बावजूद उन्होंने इलाक़े के विकास के लिए कुछ ख़ास काम नहीं किया.

बलिया निवासी वीरेंद्र तिवारी कहते हैं, “बलिया चंद्रशेखर जी की कर्मभूमि ज़रूर रही लेकिन प्रधानमंत्री जैसे पद पर रहने के बावजूद उन्होंने इस क्षेत्र के विकास के लिए कुछ ख़ास नहीं किया.

“विकास के लिहाज़ से ये आज भी उतना ही पिछड़ा है जितना आज़ादी के समय था.”

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क्षेत्र का विकास

हालांकि चंद्रशेखर महज़ छह महीने के लिए ही प्रधानमंत्री हुए थे और इस दौरान उन्होंने क्षेत्र के विकास के लिए कुछ परियोजनाओं की शुरुआत की भी थी लेकिन आगे चलकर वो सब धरी की धरी रह गईं.

बलिराम सिंह कहते हैं, “ऐसा नहीं है कि चंद्रशेखर ने कुछ नहीं किया. मशहूर सुरहाताल को पर्यटन केंद्र बनाने के लिए कोशिश की, गांव में अस्पताल बनवाया, बलिया में काफी बड़े भृगु मंदिर का भी निर्माण कराया. बहुत सी चीजें धरातल पर इसलिए नहीं उतर पाईं क्योंकि उनका कार्यकाल ही बहुत छोटा था.”

इंदिरा विरोधी

स्थानीय लोगों का कहना है कि बलिया ज़िले में जयप्रकाश नारायण की जन्मभूमि सिताबदियारा में जेपी का भव्य स्मारक बनवाने का श्रेय भी चंद्रशेखर को है और इस क़स्बे को अब जेपीनगर के ही नाम से जाना जाता है.

चंद्रशेखर वैसे तो शुरू में कांग्रेस पार्टी से ही जुड़े रहे लेकिन 1977 में इमरजेंसी के समय उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और इंदिरा गांधी के ‘मुखर विरोधी’ के तौर पर उनकी पहचान बनी. बलिया के लोगों को शायद उनकी यही छवि प्रभावित करती है.

इब्राहिमपट्टी गांव के पास ही चाय की दुकान चलाने वाले दिनेश मौर्य कहते हैं, “इंदिरा गांधी से मोर्चा लेने की ताक़त उस समय बहुत कम लोगों में थी. चंद्रशेखर चाहते तो कोई बड़ा पद ले सकते थे लेकिन उन्होंने इंदिरा गांधी का विरोध किया.”

बीजेपी का समर्थन

लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार दयानंद पांडेय कहते हैं, “चंद्रशेखर बलिया से चुनाव लड़ते ज़रूर थे लेकिन अक़्सर वो किसी न किसी के सहयोग से ही जीते हैं.

“कभी भी अपनी बदौलत चुनाव नहीं जीते. यहां तक कि बीजेपी के समर्थन से भी जीत चुके हैं और चुनाव हारे भी हैं. ऐसे में क्षेत्र के विकास के लिए बहुत कुछ करने की स्थिति में नहीं थे.”

चंद्रशेखर 1977 से लेकर लगातार इस सीट से चुनाव जीतते रहे. सिर्फ़ 1984 में वो इंदिरा लहर में हारे थे.

चंद्रशेखर के समय में विकास की दृष्टि से बलिया की स्थिति चाहे जो रही हो लेकिन राजनीतिक फलक पर इस शहर और संसदीय क्षेत्र की एक अलग हैसियत रहती थी.

मऊ ज़िले के पत्रकार वीरेंद्र चौहान बताते हैं कि चंद्रशेखर की वजह से ही राजधानी जैसी वीआईपी ट्रेन भी बलिया में रुकने लगी.

देश का पीएम

दयानंद पांडेय एक संस्मरण सुनाते हैं, “जब वो प्रधानमंत्री थे तो बलिया के कुछ लोग मिलने गए तो चंद्रशेखर ने उन लोगों से साफ़तौर पर कहा कि मैं सिर्फ़ बलिया का प्रधानमंत्री नहीं हूं बल्कि पूरे देश का हूं. जो भी करूंगा पूरे देश के लिए करूंगा, अकेले बलिया के लिए नहीं.”

विकास के नाम पर बलिया का हाल भी वही है जो कि पूर्वांचल के दूसरे ज़िलों का.

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इब्राहिमपट्टी में बड़ा पॉवर ग्रिड बना ज़रूर है लेकिन स्थानीय लोगों के मुताबिक बिजली यहां भी वैसे ही आती है जैसी पूर्वांचल के दूसरे हिस्सों में.

विरासत पर विवाद

चंद्रशेखर जब तक जीवित थे तब तक उनके परिवार का कोई भी व्यक्ति राजनीति में नहीं था लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उनके दोनों बेटों ने राजनीति का रुख़ किया.

हालांकि राजनीतिक विरासत को लेकर विवाद भी हुआ लेकिन बलिया सीट से उनके छोटे बेटे नीरज शेखर ने उपचुनाव में जीत दर्ज की.

चंद्रशेखर के बड़े बेटे पंकज शेखर ने लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी का दामन थामा और उन्हें उम्मीद थी की बीजेपी उन्हें सलेमपुर से टिकट दे देगी लेकिन टिकट उन्हें नहीं मिला.

नीरज शेखर समाजवादी पार्टी में शामिल हुए लेकिन 2014 में लोकसभा चुनाव बीजेपी के भरत सिंह से हार गए.

फ़िलहाल वो समाजवादी पार्टी की ओर से राज्यसभा सदस्य हैं.

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