केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल में नक्सलियों का यह तीसरा बड़ा हमला है। हमले की वजह उन्हें हल्के में लिया जाना है। कुछ इस तरह की हवाएं उड़ने लगी थीं कि नक्सलियों की संख्या कम हो गई है, उनका अभियान कमजोर पड़ गया है, पहले जैसी ताकत उनमें अब नहीं रही। नक्सलियों ने अब ताकत दिखाकर चुनौती पेश कर दी है।
नरेंद्र मोदी सरकार इस मामले नहीं कर रही कार्रवाई
करीब एक-दो साल से इनके खिलाफ किसी भी तरह का कोई अभियान नहीं चल रहा था, सिवाय केंद्रीय बलों के गश्त और निगरानी के। सुकमा की मौजूदा घटना किसी अनहोनी की तरफ इशारा कर रही है। केंद्रीय बलों और राज्य पुलिस में जो समन्वय होना चाहिए वो नहीं है। राज्य पुलिस को केंद्रीय बलों के साथ जितना मिल-जुलकर काम करना चाहिए वह भी वो नहीं कर रहे हैं। हमले में सिर्फ सीआरपीएफ के जवान हताहत हुए हैं पर, राज्य पुलिस के एक जवान के घायल होने की भी खबर नहीं है।
सवाल उठता है नक्सली सिर्फ सीआरपीएफ को ही निशाना क्यों बनाते हैं। राज्य पुलिस के जवान खुलेआम घूमते हैं, उन्हें किसी भी तरह का नुकसान नक्सली नहीं पहुंचाते। नक्सलियों ने जब घटना को अंजाम दिया तो बताया जा रहा है कि करीब 200-300 माओवादी थे। सवाल उठता है कि राज्य पुलिस के पास और केंद्रीय बलों के पास भी इंटेलिजेंस नेटवर्क है, जहां से सूचनाएं आती हैं। अगर राज्य पुलिस सीआरपीएफ को कवर दे रही होती तो हालत कुछ दूसरे हो सकती थे।
राज्य पुलिस को थानों से खुफिया जानकारी मिलती रहती है, ऐसा तो है नहीं कि 200-300 लोग अचानक आसमान से टपक पड़ेंगे। निश्चित तौर इस घटना से पहले भी खुफिया एजंेसियों के पास जानकारी रही होगी। उस जानकारी को सीआरपीएफ से साक्षा क्यों नही की गई, क्यों उन्हें अलर्ट नहीं किया गया।
करीब दो साल पहले एक चुनावी सभा में देश के मौजूदा गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने नक्सलियों को देश के भटके हुए भाई कहा था। उनके प्रति उन्होंने हमदर्दी भी पेश की थी। आम चुनावों के दौरान भाजपा ने यह भी कहा था कि अगर केंद्र में उनकी सरकार आती है तो वह नक्सलियों को मना लेंगे।
नक्सलियों ने घात लगाकर 26 जवानों की कर दी हत्या
भाजपा की सरकार इस समय केंद्र में है, लेकिन हालात अब भी वैसे के वैसे ही हैं। एक बार फिर नक्सलियों ने घात लगाकर छब्बीस सीआरपीएफ जवानों को मौत के घाट उतारकर सुकमा की जमीन को उनके खून से रंग दिया है। घटना केंद्र सरकार को यह संदेश देने के लिए काफी है कि नक्सली किसे के भाई नहीं, दुश्मन हैं। यह घटना सीख देती है कि ऐसे किसी भी हिंसक व्यक्ति व संगठन को भाई की संज्ञा नहीं दी जा सकती। नक्सलियों से लोहा लेने का वक्त है। इनके हौसलों उम्मीदों को कुचलने का समय है। कठोर नीति अपनाने की जरूरत है।
मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद नक्सलियों ने पहला हमला एक दिसंबर, 2014 को किया था, जिसमें सीआरपीएफ के तेरह जवान शहीद हुए थे। इसके बाद इसी साल 12 मार्च को माओवादियों ने घात लगाकर हमला किया, उसमें भी हमारे 24 जवान शहीद हो गए थे और अब 24 अप्रैल को सीआरपीफ की पैट्रोलिंग पार्टी पर नक्सलियों ने हमला कर 26 जवान मार दिए। ये तीनों हमले सुकमा में ही अंजाम दिए गए। एक के बाद एक नक्सलियों के मौत के तांडव के बाद भी आखिर देश के प्रशिक्षित जवान उनके जाल में कैसे उलझ जाते हैं?
दंतेवाड़ा, बीजापुर, सुकमा सहित बस्तर की दरूह भौगोलिक परिस्थियां का हम ये कहकर कब तक बहाना बनाते रहेंगे कि जंगलों की ठीक से मैपिंग भी नहीं है? हत्याएं हो रही हैं और जांच रिपोर्ट का पता नहीं? ऐसे ही कई तर्कसंगत सवाल सरकार के समझ उठ खड़े हुए हैं, जिनका जवाब देना पड़ेगा।
इस समस्या का समाधान न तो अब समाजिक विषमता है और न ही भू-स्वामियों के प्रति विद्वेष। नक्सलियों पर लगाम के लिए कड़ी राजनीतिक जीजिविषा चाहिए, ढुलमुल रवैया नहीं। सुकमा नक्सलियों के लिए सबसे महफूज और आरामगाह वाली जगह बन गई है, वहां सैंकड़ों की तादाद में नक्सली खुलेआम मूवमेंट करते हैं और सरकार व प्रशासन को कोई खबर नहीं होती। स्थानीय पुलिस को सब पता होता है, वाबजूद वह कोई कार्रवाई नहीं करती।