पढ़ाई बीच में छोड़ प्याज बेचते थे दत्तू, अब भारत को दिलाया मेडल

किसी भी मुकाम पर पहुंचने से पहले कठिनाइयों के रास्ते से गुजरना होता है. भारत के लिए मेडल लाने वाले एथलीट्स का निजी जीवन भी संघर्ष भरा है, लेकिन कई नाम ऐसे हैं, जिन्हें मेडल हासिल करने से पहले कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा. इसमेंएशियन गेम्स में भारत को नौकायन स्पर्धा में पदक दिलाने वाले बब्बन भोकानल दत्तू का नाम भी शामिल है.

कुएं की खुदाई से लेकर प्याज बेचने और पेट्रोल पंप पर काम करते हुए अपने परिवार का पालन-पोषण करने वाले दत्तू ने इंडोनेशिया में हुए 18वें एशियाई खेलों में भारत को नौकायन स्पर्धा में स्वर्ण पदक दिलाया. अपने जीवन की हर मुश्किलों को पार करते हुए इस मुकाम तक पहुंचे दत्तू ने रियो ओलंपिक खेलों में भी हिस्सा लिया था और उस दौरान उनकी मां कौमा में थी. ऐसी मानसिक अवस्था में भी अपने संघर्ष को जारी रखने वाले दत्तू महाराष्ट्र में नासिक के पास चांदवड गांव के निवासी हैं.

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अपने संयुक्त परिवार के विभाजन के बाद कठिन परिस्थितियों में पढाई के साथ-साथ उन्होंने अपने पिता के साथ काम कर परिवार का पालन-पोषण किया. हालांकि, उनके लिए पिता के निधन के बाद जीवन की मुश्किलें और बढ़ गईं. अपने परिवार के सबसे बड़े बेटे दत्तू उस वक्त पांचवीं कक्षा में थे, जब उन्होंने अपने पिता के साथ दैनिक मजदूर बनकर कमाई करने का फैसला लिया. उनके परिवार में उनकी बीमार मां और दो छोटे भाई हैं.

अपने पिता के निधन के बाद वह भारतीय सेना में भर्ती हो गए और यहां से दत्तू के जीवन का नया सफर शुरू हुआ, जो उन्हें एशियाई खेलों की इस उपलब्धि तक लेकर गया. दत्तू ने आईएएनएस को बताया, ‘2004-05 में मैं पांचवीं कक्षा में था, जब मेरा संयुक्त परिवार विभाजित हुआ. इसके बाद हम दो वक्त की रोटी भी नहीं जुटा पा रहे थे और तब मैंने अपने पिता के साथ काम करने का फैसला लिया. मेरे पिता कुएं खोदने का काम करते थे.

बकौल दत्तू, मैंने अपनी पढ़ाई जारी रखी और कई तरह के काम किए. शादियों में वेटर, खेती का, ट्रैक्टर चलाने आदि. साल 2007 में दत्तू ने स्कूल छोड़कर पेट्रोल पंप पर काम करना शुरू कर दिया. इसके चार साल बाद दिसंबर, 2011 में उनके पिता का निधन हो गया. उन्होंने कहा, मुझे हर माह 3,000 रुपये मेहनताना मिलता था. अपने पिता के साथ काम दो वक्त की रोटी जुटा लेता था लेकिन उनके निधन के बाद परिवार की सारी जिम्मेदारी मुझ पर आ गई.

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दत्तू ने 2010 में फिर से स्कूल जाना शुरू कर दिया. वह रात में पेट्रोल पंप पर काम करते थे. 2012 में सेना में भर्ती होने के बाद उनके जीवन का नया सफर शुरू हुआ. महाराष्ट्र के 27 साल के निवासी दत्तू ने कहा कि सेना में भर्ती का फैसला उन्होंने अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए लिया था. उन्होंने कहा, अपने पिता के निधन के तीन माह बाद मैं भर्ती हो गया. मेरी मां की तबीयत भी खराब रही थी और यह मेरी सबसे बड़ी चिंता रही. हमारे परिवार में भले ही खाना पूरा नहीं था लेकिन प्यार और लगाव भरपूर था.

पेट्रोल पंप पर समय पर पहुंचने के लिए दत्तू स्कूल से दौड़कर जाते थे और इसी कारण उन्हें सेना में भर्ती होने में मदद मिली. काम के साथ अपनी पढाई को जारी रख वह किसी तरह 10वीं कक्षा में 52 प्रतिशत अंकों के साथ पास हो गए. दत्तू ने पानी के डर को हराते हुए अपने कोच के मार्गदर्शन में नौकायन का प्रशिक्षण शुरू किया। 2013 में उन्हें सेना के रोविंग नोड (एआरएन) में शामिल कर लिया गया. पुणे में छह माह के प्रशिक्षण के बाद उन्होंने राष्ट्रीय चैम्पियनशिप में दो स्वर्ण पदक जीते और यहां से उनका आत्मविश्वास मजबूत हुआ.

साल 2014 में इंचियोन में हुए एशियाई खेलों में भी उन्हें चुना गया लेकिन परिस्थितियां उनकी उम्मीद के मुताबिक नहीं रही. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार प्रदर्शन के दबाव से वह बेहोश हो गईं और इसके बाद वह चोटिल हो गए. उनके जीवन की सबसे बड़ी चुनौती 2016 में उनके सामने आई, जब एक दुर्घटना का शिकार होकर उनकी मां कौमा में चली गईं. इस मुश्किल समय में भी दत्तू ने अपनी हिम्मत बटोरते हुए रियो ओलम्पिक में हिस्सा लिया.

इंडोनेशिया में हुए एशियाई खेलों में दत्तू ने क्वाड्रपल स्कल स्पर्धा का स्वर्ण अपने नाम किया. इस खुशी को बयां करते हुए उन्होंने कहा, फाइनल स्पर्धा के दौरान मुझे 106 डिग्री बुखार था, लेकिन मैं अंदर से प्रेरित था. इतनी बड़ी उपलब्धि हासिल करने के बावजूद अपनी जमीं से जुड़े दत्तू इस बात को स्वीकार करने से नहीं हिचकिचाते हैं कि उनके पास अपना घर नहीं है. एशियाई खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए स्वर्ण जीतने के बावजूद वह अब भी अपने छोटे भाइयों के साथ रहते हैं.

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