मोदी सरकार 2.0 में लगातार जारी रहा आर्थिक संकट, कृषि सेक्टर की हालत खराब, घरेलू बचत में आई गिरावट

एक साल पहले जब पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में दूसरी बार सरकार का गठन हुआ तो देश की अर्थव्यवस्था के सामने कई तरह की चुनौतियां थीं. प्रधानमंत्री मोदी जब अपने पिछले कार्यकाल के अंतिम दिनों में थे, तब से ही देश की अर्थव्यवस्था पटरी से उतरनी शुरू हो चुकी थी. जीडीपी का आंकड़ा गिरता जा रहा था. भ्रम की स्थिति थी. उनके सत्ता में आने के बाद साल भर अर्थव्यवस्था हिचकोले खाती रही. तभी कोरोना जैसा बड़ा संकट आ गया, इस घने अंधेरे में पुराना दाग छिप गया, अब तो सामने आने वाले बड़े तूफान की ही बात हो रही है, पुरानी बात कौन करे.

मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में अर्थव्यवस्था को नोटबंदी और जीएसटी जैसे दो बड़े झटके लगे, जिसके कारण कारोबारियों में हताशा और असमंजस की स्थिति थी. लेकिन इसके बावजूद सत्ता में आने के बाद पीएम नरेंद्र मोदी ने 5 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी बनाने की बात की.

नोटबंदी और जीएसटी के झटके का असर

2017-18 के दौरान नोटबंदी और जीएसटी की दोहरी मार झेलने के बाद अर्थशास्त्रियों ने अप्रैल-जून 2018 में उपभोग आधारित हल्की उछाल आने के बाद थोड़ी सी राहत की सांस ली थी, जब जीडीपी बढ़कर 8.2 फीसदी हो गई थी. उस समय ज्यादातर आर्थिक विश्लेषकों ने यह उम्मीद जताई थी कि नोटबंदी और जीएसटी के नकारात्मक प्रभाव से अर्थव्यवस्था उबर आई है, लेकिन छह महीनों के भीतर विकास की गति तेजी से कम होने लगी.

जीडीपी के मोर्चे पर पस्त हुआ देश

वित्त वर्ष 2018 -19 में जीडीपी ग्रोथ की रफ्तार सुस्त पड़ी थी. अप्रैल 2019 की तिमाही में जीडीपी ग्रोथ 8.2 फीसदी थी,लेकिन अप्रैल-जून 2019 में गिरकर 6.2 फीसदी हो गई. वित्त वर्ष 2019-20 में जीडीपी ग्रोथ महज 5 फीसदी रह गई. तो 2016-17 में देश की जो जीडीपी ग्रोथ 8.2 फीसदी थी, वह 2019-20 करीब 3 फीसदी तक घट गई.

जीडीपी में गिरावट का सबसे ज्यादा चिंताजनक पहलू यह था कि उपभोग में गिरावट होने लगी थी. जनवरी-मार्च 2019 में अर्थव्यवस्था में खपत औंधे मुंह गिर रही थी- ऑटो कंपनियों की बिक्री में बिक्री में मार्च 2019 में 20 से 40 फीसदी तक की गिरावट दर्ज हुई थी. इसके पहले पांच सालों में निजी निवेश में कोई तेजी नहीं देखी गई, जो निवेश-जीडीपी अनुपात में गिरावट के आंकड़े से साफतौर पर जाहिर होता है. यही नहीं, इस संकट के दौर में लोकसभा चुनाव होने के कारण सार्वजनिक यानी सरकारी निवेश की रफ्तार भी धीमी पड़ गई.

बेरोजगारी चरम पर

रोजगार के मोर्चे पर सरकार की काफी आलोचना हो रही थी. एनएसएसओ की एक लीक रिपोर्ट में बताया गया कि 2017-18 में बेरोजगारी की दर 6.1 फीसदी तक पहुंच गई, जो 45 साल में सबसे ज्यादा है. जनवरी में सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) की रिपोर्ट में कहा गया कि 2016 में हुई नोटबंदी और 2017 के जीएसटी रोलआउट के साइड इफेक्ट के रूप में 2018 में करीब 1.1 करोड़ नौकरियां खत्म हो गईं.

कृषि सेक्टर की हालत खराब, घरेलू बचत में गिरावट

पीएम मोदी ने वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य रखा था, लेकिन कृषि सेक्टर की हालत खराब थी. कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन भी लगातार निराशाजनक रहा है. आर्थिक मोर्चे पर एक और चिंता हाल के वर्षों में घरेलू वित्तीय बचत में आई तेज गिरावट है. कम मुद्रास्फीति के बावजूद निजी खपत और निवेश धीमा हो गया है. ऑटोमोबाइल बिक्री, रेल माल, घरेलू हवाई यातायात, पेट्रोलियम उत्पादों की खपत और आयात के आंकड़े खपत में मंदी के संकेत देते हैं. प्रमुख रूप से बिकने वाले कार, दोपहिया वाहन और ट्रैक्टरों की बिक्री गिर गई.

कच्चे तेल की ऊंची कीमत

इंटरनेशनल मोर्चे पर अमेरिका-चीन के बीच ट्रेड वॉर से बढ़ते तनाव के कारण कच्चे तेल की कीमत बढ़ने लगी. क्रूड ऑयल का रेट करीब 69 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गया है. चुनाव की वजह से सरकार पिछले काफी दिनों से पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बढ़त को रोके हुए थी, ऐसे में सरकार के आगे तेल और महंगाई को काबू में रखने की चुनौती थी. हालांकि बाद में अंतरराष्ट्रीय वजहों से कच्चे तेल की कीमत काफी गिर गई. जिसकी वजह से सरकार को काफी राहत मिली.

राजकोषीय घाटा और कर्ज

वित्त वर्ष 2019-20 में राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद के 3.4 फीसदी के आसपास पहुंच गया था. राजकोषीय घाटे को काबू में रखने की चुनौती मोदी सरकार के सामने थी. सितंबर, 2018 तक के लिए ही जारी रिपोर्ट के अनुसार मोदी सरकार के कार्यकाल में देश पर कर्ज 49 फीसदी बढ़कर 82 लाख करोड़ पहुंच गया था.

बैंकों और वित्तीय क्षेत्र की हालत खराब

पीएम मोदी के दूसरी बार सत्ता में आने के समय सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की हालत लगातार दो साल से खराब थी. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एनपीए दिसंबर 2019 तक करीब 9 लाख करोड़ रुपये रहा. इस बीच गैर बैंकिंग वित्तीय क्षेत्र (एनबीएफसी) सेक्टर में एक नया संकट खड़ा हो गया है. साल 2018 में इन्फ्रास्ट्रक्चर लीजिंग ऐंड फाइनेंशियल सर्विसेज (IL&FS) का संकट सामने आया. एनबीएफसी क्षेत्र का रियल एस्टेट सेक्टर में काफी पैसा फंस गया. इस साल मार्च में भारतीय रिजर्व बैंक ने येस बैंक का कंट्रोल अपने हाथ में ले लिया.

5 ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी की बात

ऐसा लगा कि पीएम मोदी इन सब चुनौतियों से विचलित होने वाले नहीं हैं. सत्ता में आते ही मोदी सरकार ने इकोनॉमी को 5 ट्रिलियन डॉलर तक ले जाने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा. साल 2019-20 के आर्थिक सर्वे में साफ कहा गया कि देश की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी बनाना है. जीडीपी को फिर से 7 फीसदी तक ले जाने का लक्ष्य रखा गया.

आर्थिक सर्वे में कहा गया है कि 2024-25 तक 5 ट्रिलियन डॉलर की इकोनमी के लिए ज़रूरी है कि जीडीपी को लगातार 8 फीसदी होना होगा. आर्थिक सर्वे के अनुसार 2018-19 मे भारत की अर्थव्यवस्था का आकार 2.75 ट्रिलियन डॉलर था. तमाम जानकारों ने भी कहा कि 5 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी को हासिल करने के लिए अगले 2-3 साल तक 8 फीसदी से ऊपर की जीडीपी ग्रोथ रेट होनी चाहिए, जिसकी दूर-दूर तक संभावना नहीं दिख रही थी.

कॉरपोरेट जगत को राहत

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कंपनियों को एक बड़ी राहत देते हुए कॉरपोरेट टैक्स को कम किया और बैंकों का पुनर्गठन किया. आलोचकों ने कहा कि यह शहर केंद्रित कदम हैं जिनका उद्देश्य कॉरपोरेट निवेश को बढ़ावा देना है. मोदी सरकार कांग्रेस के मनरेगा जैसा कोई उपाय नहीं कर पाई जो ग्रामीण क्षेत्र में एफएमसीजी की खपत को बढ़ावा दे. कोरोना संकट से पहले मनरेगा को भी सरकार ने खास महत्व नहीं दिया था.

कोरोना का घना अंधेरा

अर्थव्यवस्था के सामने अब कोरोना का बड़ा तूफान, घना अंधेरा है. आलोचक तो यहां तक कहते हैं कि इसने मोदी सरकार की पुरानी खामियों पर पर्दा डाल दिया है. कोरोना ने इस गिरती अर्थव्यवस्था को और भी तबाह कर दिया है. पहले विदेशी एजेंसीज जैसे मूडीज और विश्व बैंक ने भारत की जीडीपी को लेकर अनुमान जाहिर किए थे और इसे एक से दो फीसदी के आस-पास बताया था. कुछ एजेंसीज ने कहा था कि भारत की जीडीपी में नेगेटिव ग्रोथ होगी यानी गिरावट आएगी. तब भारत ने उनके अनुमानों को खारिज कर दिया था. लेकिन अब तो रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने भी आधिकारिक तौर पर कह दिया है कि भारत की जीडीपी निगेटिव हो सकती है. अब सभी रेटिंग एजेंसियां यह कह रही हैं कि इस वित्त वर्ष में भारत की जीडीपी में 5 से 6 फीसदी की गिरावट आ सकती है.

सरकार ने 20 लाख करोड़ के पैकेज के द्वारा बाजार में मांग बनाने के लिए नकदी प्रवाह बढ़ाने की कोशिश की है. लेकिन आने वाले दिनों में कम से कम एक साल तक अर्थव्यवस्था के सामने जो बड़ी चुनौती है, जिससे निबटना फिलहाल तो संभव नहीं दिख रहा है.

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