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बदलते मौसमों के लिए ठहरी हुई शायरी

कुछ तो तेरे मौसम ही मुझे रास कम आए, और कुछ मेरी मिट्टी में बग़ावत भी बहुत थी. जिस के आने से मेरे जख्म भरा करते थे, अब वो मौसम मेरे जख्मों को हरा करता हैं. जिस के आने से मेरे जख्म भरा करते थे, अब वो मौसम मेरे जख्मों को हरा करता हैं. जिस के आने से मेरे जख्म भरा करते थे, अब वो मौसम मेरे जख्मों को हरा करता हैं.

तपिश और बढ़ गई इन चंद बूंदों के बाद,  काले स्याह बादल ने भी बस यूँ ही बहलाया मुझे. सतरंगी अरमानों वाले,  सपने दिल में पलते हैं,  आशा और निराशा की,  धुन में रोज मचलते हैं,  बरस-बरस के सावन सोंचे,  प्यास मिटाई दुनिया की,  वो क्या जाने दीवाने तो  सावन …

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